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ग़ज़ल
जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे
मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल
मिरे तन बरहना-दुश्मन इसी ग़म में घुल रहे हैं
कि मिरे बदन पे सालिम ये लिबास है तो क्यूँ है
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
कभी तूफ़ाँ की ज़द से भी सफ़ीने बच निकलते हैं
कभी सालिम सफ़ीनों को किनारे मार देते हैं
नुज़हत अब्बासी
ग़ज़ल
फ़रहान सालिम
ग़ज़ल
फ़रहान सालिम
ग़ज़ल
एक दिन कहना ही था इक दूसरे को अलविदा'अ
आख़िरश 'सालिम' जुदा इक बार तो होना ही था