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ग़ज़ल
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
शैख़ करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सज्दे
उस के सज्दों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं
ख़ामोश ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
यूँ तकब्बुर न करो हम भी हैं बंदे उस के
सज्दे बुत करते हैं हामी जो ख़ुदा होता है
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ग़ज़ल
अगर काबे का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाए
तो फिर सज्दा मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
ताबिश कानपुरी
ग़ज़ल
पुरनम इलाहाबादी
ग़ज़ल
गया शैतान मारा एक सज्दे के न करने में
अगर लाखों बरस सज्दे में सर मारा तो क्या मारा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना
वहीं काबा सरक आया जबीं हम ने जहाँ रख दी