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ग़ज़ल
सब के चेहरों पर लिखी थीं ख़्वाहिशें 'सुल्तान-रश्क'
यूँ तो लब-बस्ता थे सारे बा-अदब ख़ामोश थे
सुलतान रशक
ग़ज़ल
बिगड़ जाती है जब तक़दीर की और वक़्त की गाड़ी
उतर आते हैं सुल्ताँ बन के फिर कंगाल सड़कों पर
अनस नबील
ग़ज़ल
ऐ जुनूँ उस्ताद बस ख़म ठोंक कर आ जाइए
हाँ ख़लीफ़ा हम भी देखें पहलवानी आप की
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
नहीं बस आज-कल सुल्तान इक़लीम-ए-शहादत में
है अपने नाम का सिक्का ज़र-ए-गंज-ए-शहीदाँ पर
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
तेरे हुस्न की ख़ैर बना दे इक दिन का सुल्तान मुझे
आँखों को बस देखने दे और होंटों से पहचान मुझे
हरबंस सिंह तसव्वुर
ग़ज़ल
बस अपनी ख़ाक पर अब ख़ुद ही सुल्तानी करेंगे हम
इसी मिट्टी पे रंगों की फ़रावानी करेंगे हम
शोएब निज़ाम
ग़ज़ल
रहा हो क़ुर्ब-ए-शाहाँ में सताइश के लिए बे-शक
मगर पत्थर के बुत से सिफ़त-ए-सुल्तानी नहीं जाती
सरदार पंछी
ग़ज़ल
जाने क्या क्या नज़र आता है तमन्ना बर-कफ़
मेरे मालिक मुझे दो रोज़ की सुल्तानी दे
अबुल हसनात हक़्क़ी
ग़ज़ल
ख़्वान-ए-यग़्मा बन के पहुँचा हर कस-ओ-ना-कस के हाथ
नित्त'अ-ए-सुल्ताँ जो था मख़्सूस ख़्वान-ए-रेख़्ता