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ग़ज़ल
बे-सबब ग़म में सुलगना मिरी आदत ही सही
साज़ ख़ामोश है क्यूँ शोला-नवा क्यूँ चुप है
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना
बदन पर डाल कर ज़ख़्मों की चादर सोचते रहना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
तिरी यादों की ख़ुश्बू खिड़कियों में रक़्स करती है
तिरे ग़म में सुलगता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं
वसी शाह
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुस्तक़िल नहीं 'अमजद' ये धुआँ मुक़द्दर का
लकड़ियाँ सुलगने में देर कुछ तो लगती है
अमजद इस्लाम अमजद
ग़ज़ल
रातें महकी, साँसें दहकी, नज़रें बहकी, रुत लहकी
सप्न सलोना, प्रेम खिलौना, फूल बिछौना, वो पहलू
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
वो मेरा चौंक चौंक उठना सहर के ग़म से और तेरा
लगा कर अपने सीना से सुलाना याद आता है