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ग़ज़ल
चमन में किस के ये बरहम हुइ है बज़्म-ए-तमाशा
कि बर्ग बर्ग-ए-समन शीशा रेज़ा-ए-हलबी है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
याद-ए-ग़ज़ाल-चश्माँ ज़िक्र-ए-समन-अज़ाराँ
जब चाहा कर लिया है कुंज-ए-क़फ़स बहाराँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मुग़न्नियो! तुम्हें कहते हैं हातिफ़-ए-रंगीं
समन-ए-बरों को जगाओ! बहार के दिन हैं