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ग़ज़ल
अब हुस्न का रुत्बा 'आली है अब हुस्न से सहरा ख़ाली है
चल बस्ती में बंजारा बन चल नगरी में सौदागर हो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
असअ'द बदायुनी
ग़ज़ल
आख़िर आख़िर ख़ुद भी ज़ख़्मी हो कर होते हैं बद-हाल
अव्वल अव्वल ज़ख़्मों के सौदागर अच्छे रहते हैं
माहिर अब्दुल हई
ग़ज़ल
अश्कों को मोती कहता हूँ रुख़्सारों को फूल
मैं लफ़्ज़ों का सौदागर हूँ मेरे बाहर अंदर झूट
रशीद क़ैसरानी
ग़ज़ल
शहर-ए-हवस के सौदाई ख़ुद जिन की रूहें नंगी हैं
मेरे तन की उर्यानी पर आवाज़े क्यूँ कसते हैं
प्रेम वारबर्टनी
ग़ज़ल
सौदा-गर-ए-सफ़ा-ए-दिल-ए-बे-ग़ुबार हैं
अज्नास-ए-शीशा लाए हैं शहर-ए-हलब से हम