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ग़ज़ल
सलीम कौसर
ग़ज़ल
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
जो दुआ को हाथ उठाए भी तो मुराद याद न आ सकी
किसी कारवाँ का जो ज़िक्र था वो पस-ए-ग़ुबार कहाँ रहा