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ग़ज़ल
मुँह में जिस के तू शब-ए-वस्ल ज़बाँ देता है
सुब्ह तक मारे मज़े ही के वो जाँ देता है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
शब-ए-वस्ल देखी जो ख़्वाब में तो सहर को सीना फ़िगार था
यही बस ख़याल था दम-ब-दम कि अभी तो पास वो यार था