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ग़ज़ल
ख़ाक-नशीनों से कूचे के क्या क्या नख़वत करते हैं
जानाँ जान तिरे दरबाँ तो फ़िरऔन-ओ-शद्दाद हुए
जौन एलिया
ग़ज़ल
हैं उधर वो कि जो ज़ालिम भी हैं शद्दाद भी हैं
और इधर वो हैं कि जो टूटने वाले कम हैं
अभिषेक शुक्ला
ग़ज़ल
सब्ज़ बाग़ आता है दुनिया का नज़र जब 'रा'ना'
याद आती है बहुत हसरत-ए-शद्दाद मुझे
मर्दान अली खां राना
ग़ज़ल
पूछें तो 'शमीम' उन से क्या ज़ुल्म का हासिल है
रास आ न सकी जिन को शद्दाद की जन्नत भी
मुस्लिम शमीम
ग़ज़ल
हश्र अग़्यार का शद्दाद के होगा हमराह
झूट कहता हूँ तो बस हश्र हो अग़्यार के साथ