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ग़ज़ल
ग़ुंचा ता शगुफ़्तन-हा बर्ग-ए-आफ़ियत मा'लूम
बा-वजूद-ए-दिल-जमई ख़्वाब-ए-गुल परेशाँ है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शाैकत वास्ती
ग़ज़ल
तिलोकचंद महरूम
ग़ज़ल
वो तो अंदर की उदासी ने बचाया वर्ना
उन की मर्ज़ी तो यही थी कि शगुफ़्ता हो जाऊँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
जब दिल था शगुफ़्ता गुल की तरह टहनी काँटा सी चुभती थी
अब एक फ़सुर्दा दिल ले कर गुलशन की तमन्ना कौन करे