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ग़ज़ल
इब्तिदा-ए-इश्क़ है लुत्फ़-ए-शबाब आने को है
सब्र रुख़्सत हो रहा है इज़्तिराब आने को है
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
प्रिया ताबीता
ग़ज़ल
सुर्ख़-रू हो जाए तुझ से दा'वा-ए-उल्फ़त शहाब
आशिक़ों के ज़िंदा रहने की अदा कुछ और है
इफ़्फ़त अब्बास
ग़ज़ल
तुझे तो बाँध के रक्खा है नीस्ती ने 'शहाब'
तू है कि हद्द-ए-फ़ुसूँ को मिटाना चाहता है
मुस्तफ़ा शहाब
ग़ज़ल
गुज़र जाओ 'शहाब' इस पुर-ख़तर काँटों के जंगल से
कि इस के बाद फिर ऐसा सफ़र कोई नहीं आता