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ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
مجھ سوں بچھر پیا کیوں دو تن کے آج گھر گئے
کیتے سو قول شطاں یک بارگی بسر گئے
अब्दुल्लाह क़ुतुब शाह
ग़ज़ल
इस क़दर ज़ेहन में अब वाहिमे पड़ जाते हैं
लोग मिलते भी नहीं हैं कि बिछड़ जाते हैं
अहमद रईस निज़ामी
ग़ज़ल
हवा रह में दिए ताक़ों में मद्धम हो गए हैं
महाज़ अब दूरियों के कितने मोहकम हो गए हैं
मुसव्विर सब्ज़वारी
ग़ज़ल
मोहब्बत में मुरव्वत की हिकायत के सुख़न ख़ाली
कि जूँ फ़ानूस दिल की शम्अ' बिन है पैरहन ख़ाली