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ग़ज़ल
ख़त-ए-नौ-ख़ेज़ नील-ए-चश्म ज़ख़्म-ए-साफ़ी-ए-आरिज़
लिया आईना ने हिर्ज़-ए-पर-ए-तूती ब-चंग आख़िर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तसव्वुर उस रुख़-ए-साफ़ी का रख मद्द-ए-नज़र नादाँ
लगाए मुँह जो आईने को आईना उसी का है
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
चेहरा-ए-रंगीं कोई दीवान-ए-रंगीं है मगर
हुस्न-ए-मतला हैं मसीं मतला है साफ़ अबरु-ए-दोस्त
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
दीद कर डाला बस उन से आलम-ए-लाहूत सब्त
जिस ने लगदी बंक की साफ़ी में छानी आप की
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
हुआ हूँ ख़ाक उस के ग़म में तो भी सीना-साफ़ी से
नहीं खोता है वो आईना-रू दिल से ग़ुबार अपना