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ग़ज़ल
क्या सहाफ़ी क्या मुअर्रिख़ कैसे आलिम क्या अदीब
देखते ही देखते बाज़ार दुनिया हो गई
मुजाहिद फ़राज़
ग़ज़ल
वो इक सहाफ़ी जो सच को लिखते नई हुकूमत से डर गया था
ख़िलाफ़ हो कर वही हुकूमत को सच दिखाता तो मर न जाता
मिर्ज़ा राहील
ग़ज़ल
अबु मुस्लिम सहाफ़ी
ग़ज़ल
ख़त-ए-नौ-ख़ेज़ नील-ए-चश्म ज़ख़्म-ए-साफ़ी-ए-आरिज़
लिया आईना ने हिर्ज़-ए-पर-ए-तूती ब-चंग आख़िर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तसव्वुर उस रुख़-ए-साफ़ी का रख मद्द-ए-नज़र नादाँ
लगाए मुँह जो आईने को आईना उसी का है