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ग़ज़ल
ज़ात-ओ-सिफ़ात-ए-हुस्न का आलम नज़र में है
महदूद-ए-सज्दा क्या मिरा ज़ौक़-ए-जबीं रहे
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
साया-ए-ज़ात से भी रम अक्स-ए-सिफ़ात से भी रम
दश्त-ए-ग़ज़ल में आ के देख हम तो ग़ज़ाल हो गए
जौन एलिया
ग़ज़ल
लम्स की लौ में पिघलता हुज्रा-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात
तुम भी होते तो अंधेरा देखने की चीज़ थी
लियाक़त अली आसिम
ग़ज़ल
मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में
ग़ुल्ग़ुला-हा-ए-अल-अमाँ बुत-कदा-ए-सिफ़ात में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये मुशगाफ़ियाँ हैं गिराँ तब-ए-इश्क़ पर
किस को दिमाग़-ए-काविश-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
बस एक राज़-ए-तसलसुल बस इक तसलसुल-ए-राज़
कहाँ पहुँच के हुई ख़त्म बहस-ए-ज़ात-ओ-सिफ़ात
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
न तुमतराक़ को ने कर्र-ओ-फ़र को देखते हैं
हम आदमी के सिफ़ात ओ सियर को देखते हैं
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
दिल उस का न लोटे कभी फूलों की सफ़ा पर
शबनम को दिखा दूँ जो तिरे गात का आलम