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ग़ज़ल
फ़रोग़-ए-सनअत-ए-क़द-आवरी का मौसम है
सुबुक हुए पे भी निकला है क़द्द-ओ-क़ामत क्या
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
कुछ सनअत ओ हिरफ़त पे भी लाज़िम है तवज्जोह
आख़िर ये गवर्नमेंट से तनख़्वाह कहाँ तक
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
हुस्न-ए-नज़र की आबरू सनअत-ए-बरहमन से है
जिस को सनम बना लिया उस को ख़ुदा बना दिया
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
किताब-ए-हुस्न की 'क़ासिम-अली' मुताला कर
बनाई सानेअ' ने सनअ'त से यक-क़लम की किताब
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
कोई मेरी ख़ता है या तिरी सनअ'त की ख़ामी है
फ़रिश्ते कह रहे हैं आदमी से कुछ नहीं होता
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
क्यूँ जानते हैं सनअत-ओ-हिरफ़त को बाग़-ए-ख़ुल्द
ग़ैरों की हम निगाह में हैं ख़ार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
दीद-ए-सनअ'त से है याँ ग़ायत-ए-दीद-ए-सानेअ'
ऐ बुतो शेफ़्ता-ए-हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद हैं हम
असद अली ख़ान क़लक़
ग़ज़ल
मग़रूर क्यूँ न होवे सनअत पर अपनी साने
किस वास्ते जब उस ने ये गुलिस्ताँ बनाया