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ग़ज़ल
लिखा जो मुश्क-ए-ख़ता ज़ुल्फ़ को तो बल खा कर
कहा ख़ता की जो ये हर्फ़-ए-ना-सवाब लिखा
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
चले हैं दैर से उठ कर सू-ए-हरम 'आरिफ़'
रह-ए-ख़ता पे फिर आए रह-ए-सवाब से हम
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
मैं सवाब हूँ तो इक दिन तिरे संग-ए-दर पे उतरूँ
मैं अज़ाब हूँ तो अपने दिल-ओ-जिस्म-ओ-जाँ पे उतरूँ
नज़ीर आज़ाद
ग़ज़ल
भेजता हूँ मैं किसी सानी-ए-बिल्क़ीस के सौब
मेरा ले जाए मगर मुर्ग़-ए-सुलैमाँ काग़ज़