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ग़ज़ल
'तालिबा' मरने पे राज़ी हूँ मगर ख़ौफ़ ये है
क़त्ल के बा'द भी कोई सितम ईजाद न हो
मुंशी ठाकुर प्रसाद तालिब
ग़ज़ल
गुल के ख़्वाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्र-फ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़मा-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
शाद ओ ख़ुश-ताले कोई होगा किसू को चाह कर
मैं तो कुल्फ़त में रहा जब से मुझे उल्फ़त हुई
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
इसी उम्मीद पर हम तालिबान-ए-दर्द जीते हैं
ख़ोशा दर्द दे कि तेरा और दर्द-ए-ला-दवा होगा
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
वो मिरे अख़्तर-ए-ताले की है वाज़ूँ गर्दिश
कि फ़लक को भी निगूँ-सार लिए फिरती है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
क्यूँ तीरगी-ए-ताले कुछ तू भी नहीं करती
ये रोज़-ए-मुसीबत का क्यूँ शाम नहीं होता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दिल एक न इक दिन जाना था ये दिन भी आख़िर आना था
'तालिब' तुम इस का ग़म न करो ये चीज़ पराई होती है
तालिब बाग़पती
ग़ज़ल
तालिब-ए-दीद को ज़ालिम ने ये लिक्खा ख़त में
अब क़यामत पे मिरा वादा-ए-दीदार रहा