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ग़ज़ल
न सी चश्म-ए-तमा ख़्वान-ए-फ़लक पर ख़ाम-दसती से
कि जाम-ए-ख़ून दे है हर सहर ये अपने मेहमाँ को
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
न 'चंदा' को तमअ जन्नत की ने ख़ौफ़-ए-जहन्नम है
रहे है दो-जहाँ में हैदर-ए-कर्रार से मतलब
मह लक़ा चंदा
ग़ज़ल
तमअ में कुछ न समझें बाप और भाई की हुरमत को
अमल देखो तो ये फिर कुछ करें दावा शराफ़त का
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
तालिब को अपने रखती है दुनिया ज़लील ओ ख़्वार
ज़र की तमअ से छानते हैं ख़ाक न्यारिये