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ग़ज़ल
हुस्न और उस पे हुस्न-ए-ज़न रह गई बुल-हवस की शर्म
अपने पे ए'तिमाद है ग़ैर को आज़माए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मशाम-ए-तेज़ से मिलता है सहरा में निशाँ उस का
ज़न ओ तख़मीं से हाथ आता नहीं आहू-ए-तातारी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बद-मिज़ाज ओ बद-दिमाग़ व बद-शिआ'र ओ बद-सुलूक
बद-तरीक़ ओ बद-ज़बाँ बद-अहद ओ बद-ज़न आप हैं
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
वो ख़ुद कामिल हैं मुझ नाक़िस को जो कामिल समझते हैं
वो हुस्न-ए-ज़न से अपना ही सा मेरा दिल समझते हैं
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
अगर सद-साल कीजे शुक्र-ए-उल्फ़त कीजिए लेकिन
ये वो शेवा है बद-ज़न फिर शिकायत आ ही जाती है
क़लक़ मेरठी
ग़ज़ल
हुस्न-ए-ज़न काम लीजे बद-गुमानी फिर सही
बे-तकल्लुफ़ और कीजे मेहरबानी फिर सही
मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी
ग़ज़ल
सिंफ़-ए-नाज़ुक को अगर देनी है इज़्ज़त दिल से दे
दर-गुज़र कर दे ख़ताएँ हुस्न-ए-ज़न की बात कर