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ग़ज़ल
मश्शाता हो अज़ीज़-ए-ज़ुलेख़ा अगर वो लाए
इस मेहर-ए-मिस्र को मह-ए-कनआँ' के सामने
रजब अली बेग सुरूर
ग़ज़ल
था ज़ुलेख़ा को जो जाँ से मह-ए-कनआ'न अज़ीज़
हम ने भी तुझ से तो बे-मेहर न की जान अज़ीज़
मोहम्मद यार ख़ाकसार
ग़ज़ल
मैं सोचता हूँ सबक़ मैं ने वो पढ़ा ही नहीं
मिरे जुनूँ की हिकायत में जो लिखा ही नहीं
अज़ीज़ प्रीहार
ग़ज़ल
क्यूँ न आँखों में रखे मुझ को ज़ुलेख़ा भी 'अज़ीज़
कैसे यूसुफ़ का ख़रीदार हूँ अल्लाह अल्लाह