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ग़ज़ल
ग़ारत-ए-रोज़-ओ-शब तो देख वक़्त का ये ग़ज़ब तो देख
कल तो निढाल भी था मैं आज निढाल भी नहीं
जौन एलिया
ग़ज़ल
सजाए बाज़ुओं पर बाज़ू वो मैदाँ में तन्हा था
चमकती थी ये बस्ती धूप में ताराज ओ ग़ारत सी
बशीर बद्र
ग़ज़ल
हम उस के वस्ल के चक्कर में ग़ारत हो गए आख़िर
किया होता जो हिज्र अच्छे-भले इंसान हो जाते
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
छुपी है तुझ में कोई शय उसे न ग़ारत कर
जो हो सके तो कहीं दिल लगा मोहब्बत कर