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ग़ज़ल
वो इम्तियाज़-ए-हुस्न है मअ'नी ओ लफ़्ज़ का
'वहशत' को जिस ने 'ग़ालिब'-ए-दौरान बना दिया
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
ग़ज़ल
रह कर हमारी गर्दिश-ए-क़िस्मत के साथ साथ
चक्कर में ख़ुद भी गर्दिश-ए-दौराँ है ग़ालिबन
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
भूले से काश वो इधर आएँ तो शाम हो
क्या लुत्फ़ हो जो अबलक़-ए-दौराँ भी राम हो