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ग़ज़ल
ग़िज़ा इसी में मिरी मैं इसी ज़मीं की ग़िज़ा
सदा फिर आती है क्यूँ पर्दा-ए-ख़ला से मुझे
अदीम हाशमी
ग़ज़ल
तेग़ का फल खाया आब-ए-तेग़ पी कर सो रहे
कसरत-ए-आब-ओ-ग़िज़ा से वाक़ई आती है नींद
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
उसी तरह हमें ज़िक्र-ए-ख़ुदा ज़रूरी है
कि जैसे जिस्म को अच्छी ग़िज़ा ज़रूरी है