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ग़ज़ल
मिली रहती थीं आँखें ग़लबा-ए-उल्फ़त से आपस में
न ख़ौफ़ उस को किसी का था न हम लोगों से डरते थे
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
कमाल सालारपूरी
ग़ज़ल
हुआ इस दर्जा ग़लबा उस पे ठंडी ठंडी साँसों का
कि आख़िर दिल हमारा हो गया काफ़ूर पहलू में
आग़ा हज्जू शरफ़
ग़ज़ल
नक़ाहत का है ग़लबा सो झुका देते हैं सर अपना
इताअ'त के 'अमल में अपनी लाचारी भी शामिल है