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ग़ज़ल
दुख़्तर-ए-रज़ को नहीं छेड़ते हैं मतवाले
हज़र उस फ़ाहिशा से करते हैं हुरमत वाले
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
थूकता भी दुख़्तर-ए-रज़ पर नहीं मस्त-ए-अलस्त
जो कि है उस फ़ाहिशा पर ग़श वो फ़ाहिश और है
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
नाचती है जुम्बिश-ए-अंगुश्त पर वो फ़ाहिशा
ज़िंदगी कह कर जिसे ख़ुद से रिया-कारी करूँ
अब्दुर्रहीम नश्तर
ग़ज़ल
जिस्म उस की गोद में हो रूह तेरे रू-ब-रू
फ़ाहिशा के गर्म बिस्तर पर रिया-कारी करूँ