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ग़ज़ल
क्यूँकि फ़र्बा न नज़र आवे तिरी ज़ुल्फ़ की लट
जोंक सी ये तो मिरा ख़ून ही पी जाती है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
फ़र्बा था तवाना था तेरा जाना-माना था
जिस पे तू हुआ शैदा लौंडा है क़साई का
तमीज़ुद्दीन तमीज़ देहलवी
ग़ज़ल
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
साक़िया कल के लिए मैं तो न रक्खूँगा शराब
तेरे होते हुए अंदेशा-ए-फ़र्दा क्या है
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
वही है साहिब-ए-इमरोज़ जिस ने अपनी हिम्मत से
ज़माने के समुंदर से निकाला गौहर-ए-फ़र्दा