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ग़ज़ल
सुनी न मिस्र ओ फ़िलिस्तीं में वो अज़ाँ मैं ने
दिया था जिस ने पहाड़ों को रा'शा-ए-सीमाब
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अरे ओ जाओ!! यूँ सर न खाओ!! हमारा उस से मुक़ाबला क्या?
न वो ज़हीन-ओ-फ़तीन यारो न वो हसीं है न शाएरा है
फ़रीहा नक़वी
ग़ज़ल
ख़्वाब में लज़्ज़त-ए-यक-ख़्वाब है दुनिया मेरी
और मिरे फ़लसफ़ी अस्बाब उठा कर ले आए
उबैदुल्लाह अलीम
ग़ज़ल
वो मोहतसिब हो कि वाइज़ वो फ़लसफ़ी हो कि शैख़
किसी से बंद तिरा राज़-दाँ नहीं होता
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
क्या ही अच्छा था शह-ए-वक़्त कि ऐसा होता
दुख फ़िलिस्तीं का भी होता तुझे कश्मीर के साथ
फ़ैसल नदीम फ़ैसल
ग़ज़ल
तुम्हें हैरत है क्यों अहल-ए-फ़िलिस्तीं की शुजाअ'त पर
यज़ीदों से सदा लोहा तो अहल-ए-दीन लेते हैं