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ग़ज़ल
मैं ख़ुद-कुशी के जुर्म का करता हूँ ए'तिराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
मकाँ है क़ब्र जिसे लोग ख़ुद बनाते हैं
मैं अपने घर में हूँ या मैं किसी मज़ार में हूँ
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
सब ने माना मरने वाला दहशत-गर्द और क़ातिल था
माँ ने फिर भी क़ब्र पे उस की राज-दुलारा लिक्खा था
अहमद सलमान
ग़ज़ल
कह के सोया हूँ ये अपने इज़्तिराब-ए-शौक़ से
जब वो आएँ क़ब्र पर फ़ौरन जगा देना मुझे