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ग़ज़ल
हो फ़िशार-ए-ज़ोफ़ में क्या ना-तवानी की नुमूद
क़द के झुकने की भी गुंजाइश मिरे तन में नहीं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तूबा-ए-बहिश्ती है तुम्हारा क़द-ए-रा'ना
हम क्यूँकर कहें सर्व-ए-इरम कह नहीं सकते
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
'ग़ालिब' तिरी ज़मीन में लिक्खी तो है ग़ज़ल
तेरे क़द-ए-सुखन के बराबर नहीं हूँ मैं
मुज़फ़्फ़र वारसी
ग़ज़ल
तीन मोहल्लों में उन जैसी क़द काठी का कोई न था
अच्छे-ख़ासे ऊँचे पूरे क़द-आवर थे बाबू जी
आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल
फ़रोग़-ए-सनअत-ए-क़द-आवरी का मौसम है
सुबुक हुए पे भी निकला है क़द्द-ओ-क़ामत क्या