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ग़ज़ल
लबालब शीशा-ए-तहज़ीब-ए-हाज़िर है मय-ए-ला से
मगर साक़ी के हाथों में नहीं पैमाना-ए-इल्ला
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जहाँ जल्वे से उस महबूब के यकसर लबालब है
नज़र पैदा कर अव्वल फिर तमाशा देख क़ुदरत का
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
अनीस अब्र
ग़ज़ल
धानी सुरमई सब्ज़ गुलाबी जैसे माँ का आँचल शाम
कैसे कैसे रंग दिखाए रोज़ लबालब छागल शाम
बद्र वास्ती
ग़ज़ल
दिया जो साक़ी ने साग़र-ए-मय दिखा के आन इक हमें लबालब
अगरचे मय-कश तो हम नए थे प लब पे रखते ही पी गए सब
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
लबालब कर दे ऐ साक़ी है ख़ाली मेरा पैमाना
सलामत दौर-ए-गर्दूं तक ये शीशा और ये मय-ख़ाना