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ग़ज़ल
ख़्वाब सरीखा छुटपन सावन प्याज़ की रोटी देसी घी
अम्मा के सिल-बट्टे वाली धनिए लहसन की चटनी
शारिक़ क़मर
ग़ज़ल
वही शहर है वही रास्ते वही घर है और वही लॉन भी
मगर इस दरीचे से पूछना वो दरख़्त अनार का क्या हुआ
बशीर बद्र
ग़ज़ल
लगा के लासे पे ले के आया हूँ शैख़ साहब को मय-कदे तक
अगर ये दो घोंट आज पी लें मिलेगा मुझ को सवाब आधा
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
ग़ज़ल
शाम ढले इक लॉन में सारे बैठ के चाय पीते थे
मेज़ हमारा घर का था कुर्सी सरकारी होती थी
जानाँ मलिक
ग़ज़ल
हब्स-ए-दम के मो'तक़िद तुम होगे शैख़-ए-शहर के
ये तो अलबत्ता कि सुन कर ला'न दम खाने लगा