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ग़ज़ल
पास जिस के कुछ नहीं माल-ओ-मता'-ए-बे-बहा
उस को क्या ग़म कि मुहाफ़िज़ पासबाँ कोई नहीं
मंसूर ख़ुशतर
ग़ज़ल
सुनो कि मैं ने धरी है सतह-ए-रवाँ पे इक डोलती इमारत
और एक शम-ए-तरब को शहर-ए-मलाल का पासबाँ किया है