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ग़ज़ल
'इंशा' जी क्या उज़्र है तुम को नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ नज़्र करो
रूप-नगर के नाके पर ये लगता है महसूल मियाँ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
जितने हुस्न-आबाद में पहुँचे होश-ओ-ख़िरद खो कर पहुँचे
माल भी तो इतने का नहीं अब जितना कुछ महसूल पड़ा
आरज़ू लखनवी
ग़ज़ल
दिलों के क़ैद-ख़ानों में उमंगें फड़फड़ाती हैं
बहुत मुश्किल मिलन है फिर तो हम महसूर ही अच्छे
जिया शाह
ग़ज़ल
नफ़रत को महसूर किया है उल्फ़त की दीवारों में
जिन राहों से गुज़रोगे तुम प्यार की ख़ुश-बू पाओगे