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ग़ज़ल
क्यों करें सवाल आख़िर दश्त के ख़ुदाओं से
हम को धूप प्यारी है ज़िल्लतों की छाओं से
मुसारिफ़ हुसैन मंसूरी
ग़ज़ल
किस पे मिटना था मुझे और मर-मिटा किस काम पर
मैं ने दुनिया ही कमाई आख़िरत के नाम पर
मुसारिफ़ हुसैन मंसूरी
ग़ज़ल
किसी का होने की ख़्वाहिश न ज़िद है पाने की
कि जब से चाल समझ आई है ज़माने की
मुसारिफ़ हुसैन मंसूरी
ग़ज़ल
मिलने की ही चाह नहीं थी और बहाना दूरी का
तुम ने अच्छा रंग चढ़ाया मर्ज़ी पर मजबूरी का
मुसारिफ़ हुसैन मंसूरी
ग़ज़ल
तुझ को पा लूँ या तिरे नाम पे वारा जाऊँ
जंग में हार से बेहतर है कि मारा जाऊँ
मुसारिफ़ हुसैन मंसूरी
ग़ज़ल
जो होना है सो दोनों जानते हैं फिर शिकायत क्या
ये बे-मसरफ़ ख़तों का सिलसिला अच्छा नहीं लगता
आशुफ़्ता चंगेज़ी
ग़ज़ल
खिलौना तो निहायत शोख़ ओ रंगीं है तमद्दुन का
मुआर्रिफ़ मैं भी हूँ लेकिन खिलौना फिर खिलौना है
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
इसी मिट्टी का ग़म्ज़ा हैं मआरिफ़ सब हक़ाएक़ सब
जो तुम चाहो तो इस जुमले को लौह-ए-ज़र पे लिख देना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं
मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ
सलीम अहमद
ग़ज़ल
मिरे इस कार-ए-बे-मसरफ़ को क्या समझेगी ये दुनिया
मिरी ये सई-ए-ला-हासिल हर इक हासिल से आगे है
ख़ुशबीर सिंह शाद
ग़ज़ल
आज का दिन भी बे-मसरफ़ सी सोचों ही में बीत गया
आज के दिन भी यूँ ही पड़े फिर घर के सारे काम रहे
शबनम शकील
ग़ज़ल
बे-मसरफ़-ओ-बे-कार हूँ अब राख की मानिंद
चिंगारी थी जो मुझ में जो शोला था वो तुम थे