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ग़ज़ल
खिलौना तो निहायत शोख़ ओ रंगीं है तमद्दुन का
मुआर्रिफ़ मैं भी हूँ लेकिन खिलौना फिर खिलौना है
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
जो मुआर्रिफ़ कामिलों के थी अगर होती वो आज
हम को भी कहते ये अपनी फ़न में कामिल एक है
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
इमदाद अली बहर
ग़ज़ल
जब वो जमाल-ए-दिल-फ़रोज़ सूरत-ए-मेहर-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़ पर्दे में मुँह छुपाए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया
परवीन शाकिर
ग़ज़ल
रुख़-ए-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहर-ओ-मह नज़रों से यारों की उतर जाएँगे