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ग़ज़ल
अल्फ़ाज़ में इज़हार-ए-मोहब्बत के तरीक़े
ख़ुद इश्क़ की नज़रों में भी मायूब रहे हैं
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
याँ अपनी सज़ा भुगती उस ने रहमत की नज़र होगी उस पर
हर-चंद ख़ता-कार-ए-उल्फ़त कूचे से तिरे मा'तूब गया
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
कब खुला उक़्दा 'रज़ा' जब कर चुके इज़हार-ए-शौक़
मुद्दआ' जाएज़ था हर्फ़-ए-मुद्दआ' मा'यूब था
आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल
हिज्र के हामी तो दोनों ही नहीं थे मगर
वस्ल में भी हम कि मा'यूब रहे हैं मियाँ
मुज़म्मिल हुसैन चीमा
ग़ज़ल
ऐसे लोगों पर भला कैसे न फिर आएँ 'अज़ाब
जो गुनह करने को भी समझें नहीं मा'यूब तक