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ग़ज़ल
हम मेहराब और मिम्बर वालों की आँखों को चुभते हैं
हम ने अक़्ल को रहबर माना हम मफ़रूर ख़ुदाओं के
इफ़्तिख़ार हैदर
ग़ज़ल
जुदाई से होवे मफ़रूर जाँ क़ालिब के सूबा सूँ
अपस दीदार सूँ करती हैं फिर उस कूँ बहाल अँखियाँ
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
ग़ज़ल
आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है