aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "مقدر"
रेखाओं का खेल है मुक़द्दररेखाओं से मात खा रहे हो
जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़रकुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं
जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लियाजो खो गया मैं उस को भुलाता चला गया
तुम्हारा होने के फ़ैसले को मैं अपनी क़िस्मत पे छोड़ता हूँअगर मुक़द्दर का कोई टूटा कभी सितारा तो मैं तुम्हारा
मुक़द्दर मिरी चश्म-ए-पुर-आब काबरसती हुई रात बरसात की
इस शब के मुक़द्दर में सहर ही नहीं 'मोहसिन'देखा है कई बार चराग़ों को बुझा कर
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सहीये खिड़की खोलो ज़रा सुब्ह की हवा ही लगे
ये तीरगी मिरे घर का ही क्यूँ मुक़द्दर होमैं तेरे शहर के सारे दिए बुझा दूँगा
मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलतादिल उस से मिला जिस से मुक़द्दर नहीं मिलता
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहेमुक़द्दर में चलना था चलते रहे
तुझ से बिछड़ के हम भी मुक़द्दर के हो गएफिर जो भी दर मिला है उसी दर के हो गए
रात को मान लिया दिल ने मुक़द्दर लेकिनरात के हाथ पे अब कोई दिया चाहता है
फूलों का बिखरना तो मुक़द्दर ही था लेकिनकुछ इस में हवाओं की सियासत भी बहुत थी
वहशतें कुछ इस तरह अपना मुक़द्दर बन गईंहम जहाँ पहुँचे हमारे साथ वीराने गए
कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुनफिर इस के बा'द थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर
फिर वही तल्ख़ी-ए-हालात मुक़द्दर ठहरीनश्शे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं
'क़तील' अपना मुक़द्दर ग़म से बेगाना अगर होतातो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते
गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनोडूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ
हर इक दुआ के मुक़द्दर में कब हुज़ूरी हैतमाम ग़ुंचे तो 'अमजद' खिला नहीं करते
ज़िंदगी का मुक़द्दर सफ़र-दर-सफ़रआख़िरी साँस तक बे-क़रार आदमी
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