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ग़ज़ल
उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रिफ़ाक़त का एहसास
जब उस के मल्बूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है
जौन एलिया
ग़ज़ल
रिज़्क़ मल्बूस मकाँ साँस मरज़ क़र्ज़ दवा
मुनक़सिम हो गया इंसाँ इन्ही अफ़्कार के बीच
मोहसिन नक़वी
ग़ज़ल
जामा-ए-दाग़ को मल्बूस कर अपना दिन रात
क्यूँकि ये जामा तिरे क़द पे निपट ठीक है दिल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ख़ामुशी उर्यानी-ए-मफ़्हूम का ताबिश-कदा
गुफ़्तुगू माशूक़ को मल्बूस पहनाने का नाम
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
मैं बदन को दर्द के मल्बूस पहनाता रहा
रूह तक फैली हुई मिलती है उर्यानी मुझे