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ग़ज़ल
मुलम्मा'-कारियाँ अशिया में भी इंसान में भी हैं
ज़मीं फ़ितरत के साँचे में ढली लगती नहीं मुझ को
सय्यद अमीन अशरफ़
ग़ज़ल
मुलम्मा' वक़्त का चढ़ता गया क्यूँ इस क़दर बोलो
कि पत्थर को हँसा कर बा-हुनर भी हो गए पत्थर