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ग़ज़ल
दाख़िला ममनूअ' लिक्खा था फ़सील-ए-शहर पर
पढ़ तो मैं ने भी लिया था फिर भी दाख़िल हो गया
आशुफ़्ता चंगेज़ी
ग़ज़ल
दाख़िला मेरा ही ममनूअ' है गुलशन में 'ज़की'
जब कि ख़ूँ मैं ने दिया बाग़ की ज़ेबाई में
काैकब ज़की
ग़ज़ल
किसी आमिल ने बोला था मिरी रूदाद सुन के ये
मियाँ ये ऐश ममनूअ' है ज़रूरत साथ रहती है