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ग़ज़ल
बज़्म-ए-मातम तो नहीं बज़्म-ए-सुख़न है 'हाली'
याँ मुनासिब नहीं रो रो के रुलाना हरगिज़
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
अनवर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
इक़बाल अज़ीम
ग़ज़ल
दाद-ओ-तहसीन की बोली नहीं तफ़्हीम का नक़्द
शर्त कुछ तो मिरे बिकने की मुनासिब ठहरे
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है जी
अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढ़ूँ कुछ तू बढ़े