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ग़ज़ल
तिश्नगी हम को मिली तुम हुए सैराब तो क्या
इन मुक़द्दर की सज़ाओं से मुआ'फ़ी तो नहीं
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
आतिश बहावलपुरी
ग़ज़ल
ये हिजाब-ए-जिस्म-ए-ख़ाकी कि है दीद का मुनाफ़ी
कभी दरमियाँ से उठता तो विसाल-ए-यार होता
मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी
ग़ज़ल
मुजरिम-ए-इश्क़ तलबगार-ए-मुआ'फ़ी तो नहीं
सिर्फ़ ग़म चाहता है ग़म की तलाफ़ी तो नहीं
मुख़्तार हाशमी
ग़ज़ल
मुनाफ़ी था ये ऐ मंसूर दस्तूर-ए-अमानत के
किसी की बात को यूँ अपने बेगाने में रख देना
वासिफ़ देहलवी
ग़ज़ल
करतीं भी हवाएँ क्या फ़ितरत के मुनाफ़ी था
रौशन किसी मुफ़्लिस की कुटिया में दिया रखना
मसऊद भोपाली
ग़ज़ल
हैं खेल सब मुनाफ़ी-ए-शौकत कि अहल-ए-जाह
रह जाते हैं शिकार में ख़ैल-ओ-हशम से दूर