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ग़ज़ल
दाम-ए-हर-मौज में है हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होते तक
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो अच्छा था जो बेड़ा मौज के रहम ओ करम पर था
ख़िज़र आए तो कश्ती डूबती मालूम होती है
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
जला सकती है शम'-ए-कुश्ता को मौज-ए-नफ़स उन की
इलाही क्या छुपा होता है अहल-ए-दिल के सीनों में