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ग़ज़ल
मुसाफ़िर अपनी मंज़िल पर पहुँच कर चैन पाते हैं
वो मौजें सर पटकती हैं जिन्हें साहिल नहीं मिलता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
मुज़्तरिब हैं मौजें क्यूँ उठ रहे हैं तूफ़ाँ क्यूँ
क्या किसी सफ़ीने को आरज़ू-ए-साहिल है
अमीर क़ज़लबाश
ग़ज़ल
तालिब बाग़पती
ग़ज़ल
साँसें जितनी मौजें उतनी सब की अपनी अपनी गिनती
सदियों का इतिहास समुंदर जितना तेरा उतना मेरा
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
मौजें ही पतवार बनेंगी तूफ़ाँ पार लगाएगा
दरिया के हैं बस दो साहिल कश्ती के हैं छोर बहुत
उमर अंसारी
ग़ज़ल
जो मौजें ख़ास कर चश्म-ओ-चराग़-ए-दाम-ए-तूफ़ाँ हैं
मैं उन मौजों को हम-आग़ोश-ए-साहिल देख लेता हूँ
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
ये नर्म ओ ना-तवाँ मौजें ख़ुदी का राज़ क्या जानें
क़दम लेते हैं तूफ़ाँ अज़्मत-ए-साहिल समझते हैं