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ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
आँखें मूँद किनारे बैठो मन के रक्खो बंद किवाड़
'इंशा'-जी लो धागा लो और लब सी लो ख़ामोश रहो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
हम आप की आँखों में इस दिल को बसा दें तो
हम मूँद के पलकों को इस दिल को सज़ा दें तो
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
कुछ बे-हँगम आवाज़ें थीं कुछ साए से फिरते थे
आँखें मूँद के गुज़रे थे हम दुनिया के बाज़ारों से
अज़ीज़ नबील
ग़ज़ल
मुझ ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या
पल दो पल को मूँद लूँ आँखें वर्ना घर-वर क्या
ज़ेब ग़ौरी
ग़ज़ल
चढ़ा कोठे पे दरवाज़े को मूँद और खोल कर पर्दे
लगा छाती लिए बोसे क्या हत फेर आँधी में
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
जहाँ रातों को पड़ रहते हों आँखें मूँद कर लोग
वहाँ महताब में चेहरा नज़र शायद न आए