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ग़ज़ल
ये दुनिया है हवादिस-गाह या मकतब मोहब्बत का
ज़माना हर क़दम पर ले रहा है इम्तिहाँ मेरा
मासूम शर्क़ी
ग़ज़ल
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ
शायद इस ज़ख़्म को भरने में ज़माने लग जाएँ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
मीम मोहब्बत पढ़ते पढ़ते लिखते लिखते काफ़ कहानी
बैठे बैठे इस मकतब में ख़ाक बराबर आ जाते हैं
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल
मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ूमंदी
मक़ाम-ए-बंदगी दे कर न लूँ शान-ए-ख़ुदावंदी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
سودھن کارن پیاری کے سو دیواراں دھرائی میں
لگا کر سیس کیاں ایتاں چھجے محلاں اچائی میں
गुस्ताख़ दकनी
ग़ज़ल
मोहब्बत रंग लाती है जवानी की बहारों में
निगाहें ढूँढ़ लेती हैं सनम-गर को हज़ारों में