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ग़ज़ल
वाइ'ज़ है न ज़ाहिद है नासेह है न क़ातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
गर दिल को बस में पाएँ तो नासेह तिरी सुनें
अपनी तो मर्ग-ओ-ज़ीस्त है उस बेवफ़ा के हाथ
निज़ाम रामपुरी
ग़ज़ल
चश्मक मिरी वहशत पे है क्या हज़रत-ए-नासेह
तर्ज़-ए-निगह-ए-चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ तो देखो
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
ब-ज़ाहिर बा-अदब यूँ हज़रत-ए-नासेह से मिलता हूँ
मुरीद-ए-ख़ास जैसे मुर्शिद-ए-कामिल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझावेंगे क्या
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
शहर का शहर ही नासेह हो तो क्या कीजिएगा
वर्ना हम रिंद तो भिड़ जाते हैं दो-चार के साथ