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ग़ज़ल
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही सामने तेरे आए क्यूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
न गँवाओ नावक-ए-नीम-कश दिल-ए-रेज़ा-रेज़ा गँवा दिया
जो बचे हैं संग समेट लो तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
रहे दिल ही में तीर अच्छा जिगर के पार हो बेहतर
ग़रज़ शुस्त-ए-बुत-ए-नावक-फ़गन की आज़माइश है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
यहाँ तक थक गए हैं चलते चलते तेरे हाथों से
कि अब छुप छुप के नावक सीना-ए-बिस्मिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
क़ुर्बां तिरी आँखों के सदक़े तरी नज़रों के
था हासिल-ए-सद-नावक जो ज़ख़्म-ए-जिगर देखा
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
वही दर्द भी है दवा भी है वही मौत भी है हयात भी
वही इश्क़ नावक-ए-नाज़ है वही इश्क़ सीना-सिपर भी है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
यक्का-ताज़ ओ नेज़ा-बाज़ ओ अरबदा-जू तुंद-ख़ू
तेग़-ज़न दश्ना-गुज़ार ओ नावक-अफ़गन आप हैं
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
लज़्ज़त-ए-नावक-ए-ग़म 'ज़ौक़' से हो पूछते क्या
लब पड़े चाटते हैं ज़ख़्म-ए-जिगर देखते हो